मंगलवार, 23 मई 2017

जीवों में मनुष्य का शरीर ही सबसे श्रेष्ठ-श्रीश्वरी देवी, सांस्कृतिक नगरी नैला में दिव्य दार्शनिक प्रवचन का आयोजन

जांजगीर-चांपा. सांस्कृतिक नगरी नैला की पावन भूमि पर दिव्य दार्शनिक प्रवचन के प्रथम दिवस में श्रीश्वरी देवी ने श्वेताश्वतरोपनिषद के तीसरे अध्याय के आठवें मंत्र त्वमेव विदिध्वाति मृत्युमेति नान्य: पन्था विद्यतेयानाथ की व्याख्या प्रारंभ की। इस वेद मंत्र का शाब्दिक अर्थ उन्होंने बताया कि ईश्वर को जानकर जीव माया से उत्तीर्ण हो सकता है। उन्होंने स्वयं प्रश्न रखा कि क्या समस्त जीव ईश्वर को जानकर माया से उत्तीर्ण हो सकते है? उसके उत्तर में उन्होंने बताया कि नहीं, केवल मनुष्य ही ऐसा जीव है जो ईश्वर को जानकर माया से उत्तीर्ण हो सकता है, इसको बताते हुए उन्होंने मानव देह के महत्व पर प्रकाश डाला। 

उन्होंने वेद रामायण, पुराण, गीता, गुरूग्रंथ साहिब, आदि ग्रंथो से प्रमाण देते हुए कहा कि चौरासी लाख प्रकार के जीवों में मनुष्य का शरीर ही सबसे श्रेष्ठ है। इस मनुष्य शरीर को पाने के लिए स्वर्ग के देवी-देवता भी तरसते हैं। इसका कारण उन्होंने बताया कि मनुष्य का शरीर ज्ञान प्रधत्व और पुरूषार्थयुक्त है। अर्थात् इस मनुष्य शरीर से किए गए कर्म का फल मिलता है। इस मनुष्य शरीर से अच्छा कर्म करके स्वर्ग, बुरा कर्म करके नर्क, दोनों न करके मोक्ष एवं भक्ति करके परमानन्द प्राप्त कर सकते हंै, किन्तु अन्य योनियों में किए गए कर्मो का फल नहीं मिलता। इसलिए जीव के लक्ष्य को प्राप्त नहीं कर सकता। उन्होंने बताया की देवता भी जीव हैं, जो पुण्य कर्म करके स्वर्ग प्राप्त करते हैं और पुण्य के अनुपात में स्वर्ग का भोग करके पुन: उन्हें मृत्युलोक में आना पड़ता है। मनुष्य शरीर की विशेषता के साथ-साथ इसकी एक कमी पर प्रकाश डालते हुए उन्होंने बताया कि मनुष्य का शरीर पानी के बुलबुले के समान क्षणभंगुर है, कब छिन जाए, इसका कोई भरोसा ही नहीं है। इसलिए ऐसा दुर्लभ मनुष्य शरीर प्राप्त करके हमें तत्काल मानव जीवन के लक्ष्य, भक्ति के परमानन्द को प्राप्त करने में लग जाना चाहिए, अन्यथा पशु, पक्षी, कीट, पतंगों की हीनतर योनियों में करोड़ों जन्मों तक भटकना पड़ेगा। दिव्य दार्शनिक प्रवचन के दूसरे दिन मंगलवार को श्रीश्वरी देवी ने जीव का लक्ष्य क्या है, इस विषय पर प्रकाश डालते हुए कहा कि विश्व का प्रत्येक जीव आनन्द की प्राप्ति के लिए ही प्रतिक्षण प्रयत्नशील है और कोई भी जीव एक क्षण के लिए भी अकर्मा नहीं रह सकता। आनंद प्राप्ति ही हमारा लक्ष्य है। अतएव दिनभर में जितने विपरीत कार्य हम करते हैं, केवल आनंद के लिए ही करते हंै। हम आनंद ही क्यों चाहते है? इसके उत्तर में उन्होंने कहा कि चूंकि विश्व का प्रत्येक जीव भगवान का अंश है, भगवान अंशी है, साथ ही साथ प्रत्येक अंश अपने अंशी से ही स्वभाविक रूपेण प्यार करता है। इसलिए विश्व का प्रत्येक जीव भी अपने अंशी भगवान से ही स्वभाविक रूप से प्यार करता है और भगवान स्वयं आनंद है, भगवान एवं आनंद पर्यायवाची शब्द है। विश्व का प्रत्येक जीव आनंद से ही प्यार करता है। आनंद की परिभाषा क्या है? वेद कहता है यौ वै भूमा तत्सुखं भुमैव सुखम् अर्थात् आनंद सदा अनंत मात्रा का होता है, अनंत काल के लिए मिला है। आनंद चूंकि भगवान का पर्यायवाची शब्द है, अतएव ऐसा आनंद एक बार ही मिल जाए। किसी को फिर छिना नहीं करता, अपितु वो निरंतर बढ़ता ही रहता है, लेकिन ऐसा आनंद हमें आज तक प्राप्त नहीं हुआ, क्योंकि जो संसारी वस्तुओं से हमें जिस आनंद की प्राप्ति होती है वो तो क्षणभंगुर होती है। कुछ क्षण के बाद वही आनंद दुख में परिवर्तित हो जाता है, इसलिए यह आनंद नही है, जो हमें संसार से मिलता है। आनंद स्वयं भगवान है, जिसकी प्राप्ति पर ही हम सदा-सदा के लिए आनंदमय हो सकते हैं। दिव्य दार्शनिक प्रवचन सुनने के लिए आसपास के लोग रोजाना बड़ी संख्या में पहुंच रहे हैं।

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