शनिवार, 18 मार्च 2017

आखिर कब तक चढ़ेगी आदिवासियों की बलि?


राजेन्द्र राठौर@ त्वरित टिप्पणी्-कुनकुरी भूमि घोटाला 


धान का कटोरा कहलाने वाले छत्तीसगढ़ में तेजी से पांव पसारते औद्योगिक इकाईयों से यहां प्रदूषण का खतरा दिनों-दिन बढऩे लगा है। पर्यावरण प्रदूषण से मनुष्य सहित पेड़-पौधे व जीव-जन्तु भी बुरी तरह प्रभावित हो रहे हैं। औद्योगिकीकरण व जनसंख्या में वृद्धि के कारण पिछले एक दशक में छत्तीसगढ़ के कई जिलों के भूजल स्तर में काफी गिरावट आई है। वहीं रासायनिक उर्वरकों के प्रयोग से भूमि प्रदूषित तो हो रही है। साथ ही गरीब आदिवासियों की पुश्तैनी जमीन तक छीन जा रही है। कुनकुरी भूमि घोटाला मामला पिछले कुछ माह से सुर्खियों में है। करीब तीन सौ एकड़ आदिवासी जमीन घोटाला में 35 लोगों के खिलाफ एफआईआर की मांग करने वाले आदिवासी किसान जयलाल राठिया की बीती रात हुई संदेहस्पद मौत ने छत्तीसगढ़ सरकार को कटघरे में ला खड़ा किया है। ऐसे में सवाल उठना भी लाजिमी है कि आखिर कब तक प्रदेश के आदिवासियों की बलि चढ़ेगी।
 
छत्तीसगढ़ के रायगढ़ और जांजगीर-चांपा जिले की बात करें तो इन जिलों में वर्तमान में दर्जनों छोटे-बड़े उद्योग लग चुके है, जिससे आम जनजीवन प्रदूषण की मार झेल रहा है। बावजूद इसके राज्य सरकार ने यहां पावर प्लांट लगाने उद्योगपतियों द्वार खोल दिए हैं। पिछले कुछ वर्षो में रायगढ़ और जांजगीर-चांपा जिले में मुख्यमंत्री ने उद्योगपतियों से पावर प्लांट लगाने आंख मूंदकर एमओयू किए है, जिनके चालू होने के बाद इन जिलों की क्या दशा होगी, इसका अंदाजा सहज ही लगाया जा सकता है। दिलचस्प बात यह है कि उद्योग लगने से टाटा या अंबानी जैसे धन्ना सेठ प्रभावित नहीं हो रहे हैं। उद्योग सिर्फ भोलेभाले किसान और आदिवासियों को निगल रहा है। इसका ताजा उदाहरण कुनकुरी जमीन घोटाला है, जिसके खिलाफ जंग लड़ रहे आदिवासी जयलाल की संदेहस्पद मौत ने छत्तीसगढ़ सरकार की कार्यप्रणाली पर उंगलियां उठाई है। उद्योगों की वजह से आदिवासी बेमौत मर रहे हैं। जिन्होंने अपनी जमीन उद्योगपतियों को बेची भी है, वे मुआवजे के लिए भटक रहे हैं। वहीं जिन्होंने अपनी जमीन नहीं बेची है, उनकी जमीन पर जबरिया कब्जा कर लिया गया है। मुआवजा वितरण में भी सरकारी नुमाइंदों ने अपनी मनमर्जी की है। कुनकुरी जमीन घोटाला मामले में कई प्रशासनिक अधिकारियों की अहम् भूमिका रही है, लेकिन सरकार ने उनके खिलाफ अब तक कोई कार्रवाई नहीं की है। ऐसे में आदिवासी जयलाल की मौत के लिए सरकार को जिम्मेदार ठहराना अनुचित नहीं होगा। इधर, व्यापक पैमाने पर औद्योगिक इकाईयों की स्थापना से नदियों का अस्तित्व भी संकट में है। औद्योगिक इकाईयां सिंचाई विभाग व सरकार से किए गए अनुबंध से ज्यादा नदी के पानी का उपयोग कर रही हैं, जिसके कारण गर्मी शुरू होने से पहले ही कई नदियां सूख जा रही है। वहीं कई उद्योगों द्वारा तो नदियों में कैमिकलयुक्त पानी भी छोड़ा जा रहा है, जिससे नदी किनारे गांव में रहने वालों को बड़ी मुसीबत झेलनी पड़ रही है। आज हमारे पास शुध्द पेयजल का अभाव है, सांस लेने के लिए शुध्द हवा कम पडऩे लगी है। जंगल कटते जा रहे हैं, जल के स्रोत नष्ट हो रहे हैं, वनों के लिए आवश्यक वन्य प्राणी भी लुप्त होते जा रहे हैं। औद्योगीकरण ने खेत-खलिहान और वनक्षेत्र निगल लिए हैं। वन्य जीवों का आशियाना छिन गया है तथा कल-कारखाने धुआं उगल कर प्राणवायु को दूषित कर रहे हैं। यह सब खतरे की घंटी ही तो है। सरकार यदि इन विषयों पर गंभीरता से मंथन नहीं करती है तो यह तो तय है कि आगे भी कई जयलाल मौत की आगोश में समा जाएंगे।

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