(हिंदी दिवस पर विशेष)
राजेंद्र राठौड़ @ छत्तीसगढ़. भारत
देश की मातृभाषा हिन्दी है, जिसे बोलने और सुनने में प्रत्येक भारतवासी को
गर्व करना चाहिए, लेकिन आधुनिकता के प्रभाव में पड़कर देश के ज्यादातर लोग
हिन्दी की जगह अंग्रेजी को ज्यादा तवज्जो दे रहे हैं। भारत के हर राज्य में
अंग्रेजी
का ही बोलबाला है, चाहे वह कोई सरकारी दफ्तर हो या प्राइवेट कंपनी। लोगों
के सामने अंग्रेजी नहीं बोल पाने पर हम खुद को कमजोर महसूस करते हैं, मगर
हमें हिन्दी बोलना न आए, तो भी कोई बात नहीं। ऐसे में हमारी मातृभाषा यानी
हिन्दी अपने ही देश में पराई हो गई है।
हर वर्ष की तरह इस वर्ष फिर
देशभर में हिंदी दिवस और हिंदी पखवाड़े का आयोजन किया जाएगा। औपचारिकता पूरी
करने के लिए सरकारी संस्थानों, बैंकों एवं निजी प्रतिष्ठानों में
बैनर-पोस्टर लगाए जाएंगे, संगोष्ठियां आयोजित की
जाएगी, लेकिन हिंदी भाषा हमेशा की तरह जस की तस ठहरी रह जाएगी। अपने ही
देश में अंग्रेजी के सामने दूसरे पायदान पर खड़ी किसी उद्धारकर्ता की बाट
जोहती रहेगी। सन् 1950 में 14 सितम्बर को भारत के संविधान में हिंदी को
राजभाषा का दर्जा दिया गया, तब से प्रत्येक वर्ष इस भाषा के संवर्धन के लिए
हिंदी दिवस, हिंदी सप्ताह और हिंदी पखवाड़ा तक मनाया जाता है। आयोजनों में
हिंदी के प्रचार-प्रसार और हिंदी में कामकाज करने का संकल्प लिया जाता है,
लेकिन यह धरा ही रह जाता है। वजह स्पष्ट है कि यह सब सच्ची निष्ठा से नहीं,
बल्कि दिखावे के लिए किए जाते हैं। इस बार भी
सभाएं, समारोह, हिंदी लेखन स्पर्धा, वाद-विवाद प्रतियोगिताएं होंगी,
अंग्रेजी की गुलाम मानसिकता से बाहर निकलने का प्रण लिया जाएगा। भले ही
इसका प्रतिफल कुछ न मिले, लेकिन कार्यक्रम तो होने ही हैं और होंगे।
गौर
करने की बात है कि हिंदी के अलावा किसी भाषा का दिवस नहीं मनाया जाता है।
यह भी एक संयोग है कि हिंदी दिवस का आगमन श्राद्ध पक्ष के आसपास ही होता
है। क्या इससे नहीं लगता कि हम हिंदी का ही ‘श्राद्ध’ मना रहे हैं? देखा
जाए तो हिंदी की दशा हमारे देश के कर्णधारों की विफलता का जीता-जागता नमूना
है, क्योंकि भारत के संविधान के भाग 17 अनुच्छेद 343 (1) में स्पष्ट लिखा
है कि संघ की राजभाषा हिंदी और लिपि देवनागरी
होगी। इतने स्पष्ट निर्देशों के बाद भी आज अंग्रेजी पूरे देश में इतनी
हावी है कि उसके सामने हिंदी लाचार नजर आती है। इसके लिए हम भले ही लार्ड
मैकाले की शिक्षा पद्धति को दोष देते रहें, पर सच तो यह है कि इतने शिक्षा
शास्त्रियों के इस देश में अभी तक ऐसी शिक्षा नीति नहीं बन पाई, जिससे देश
के नागरिकों को अपनी भाषा में पढ़ने की छूट मिल सके। दूसरी ओर, विदेशों में
हिंदी भाषा की लोकप्रियता बढ़ रही है। इतिहास पर गौर करें तो, पहला विश्व
हिंदी सम्मेलन नागपुर में सन् 1975 में हुआ था। इसके बाद यह सम्मेलन विश्व
के कई स्थानों पर आयोजित हुआ।
दूसरा सम्मेलन मॉरीशस में सन् 1976 में,
तीसरा भारत में सन् 1983 में, चौथा ट्रिनिडाड और टोबैगो में सन् 1996 में,
पांचवां लंदन में 1999 में, छठा सूरीनाम में 2003 में और सातवां सम्मेलन
अमेरिका में सन् 2007 में हुआ था। हिंदी भाषा से जुड़े कुछ रोचक तथ्य भी
हैं, मसलन हिंदी भाषा का इतिहास सबसे पहले एक फ्रांसीसी लेखक ग्रासिन द
तैसी ने लिखा था। हिंदी और दूसरी भारतीय भाषाओं पर पहला विस्तृत सर्वेक्षण
एक अंग्रेज जॉर्ज अब्राहम ग्रीयर्सन ने किया। इसी तरह हिंदी भाषा पर पहला
शोध कार्य ‘द थियोलॉजी ऑफ तुलसीदास’ को लंदन विश्वविद्यालय में पहली बार एक
अंग्रेज विद्वान जे. आर. कार्पेटर ने प्रस्तुत किया था। यह सच है कि
वर्तमान अंग्रेजी केंद्रित शिक्षा प्रणाली से हम समाज के सबसे बड़े तबके को
अपनी भाषा में ज्ञान देने से वंचित कर रहे हैं और उनमें अपनी भाषा के प्रति
हीन भावना पैदा कर रहे हैं। यही समय है कि हम गुलामी की मानसिकता से उबरें
और अपनी राष्ट्रभाषा को उचित सम्मान दें।
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